वह इंसान जो हम सब के वजूद का माध्यम बने, जो मामूली पानी के एक बूंद से लेकर जवान होने तक हमारा ध्यान रखा, वह हमारे माता पिता हैं, वह माँ जो नौ महीने तक हमें अपने पेट में रखी, जन्म देने का कष्ट सहन किया, दूध पिलाने की परेशानियां झेली, हमारे लिए अपने आराम को क़ुरबान किया, रातों की नींद और दिन के आराम को तज दिया, हमारी खुशी को अपनी खुशी समझा और हमारे शोक को अपना शोक माना, ठंडी, गर्मी और बीमारी में हमारी सुरक्षा की, हमारे हर जाइज़ और नाजाइज़ नख़रे सहती रही और हर समय हमें अपनी आँखों में बसाए रखी. फिर वह पिता जो मात्र हमारे लिए अपनी जान की परवाह किए बिना मेहनत करता रहा, परवासीय जीवन बिताई, आराम और राहत को क़ुरबान किया, हमारी हर फरमाइश पूरी करता रहा, हमारी शिक्षा का प्रबंध किया، हमारे बेहतर भविष्य का सपना देखता रहा, यहां तक कि आज हम जिम्मेदारी उठाने में सक्षम हो गए।
क्या हम में से कोई आदमी अपने माँ बाप के एह्सान का बदला चुका सकता है, सच्चाई यह है कि एक व्यक्ति जितनी भी माता पिता की सेवा कर ले, उनको अपनी आँखों में बसाए रखे, लेकिन उनका हक़ अदा नहीं कर सकता, इमाम बुखारी रहिमहुल्लाह ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक अल अदबुल मुफ़रद में बयान किया है कि एक बार हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने एक यमनी को देखा कि वह अपनी माँ को पीठ पर उठाए हुए काबा का तवाफ करा रहा है. जब हज़रत इब्ने उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा को देखा तो कहा:
يا ابن عمر أ تراني جزيتها
“इब्न उमर! आप का क्या विचार है, क्या मैं ने अपनी मां के एह्सान का बदला चुका दिया” आपने उस व्यक्ति की बात सुन कर फरमाया:
ولا بزفرة واحدة
“उनके अधिकार अदा करना तो दूर की बात है उनके (जन्म देते समय के कष्ट के) एक सांस बराबर भी बदला न चुका सके”. अर्थात् तुझे जनने में उनको जो परेशानी हुई थी उस समय उन्होंने जो सांस लिया था, तुम एक सांस का भी बदला न चुका सके।
माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार मानव प्रकृति की आवाज है, यह सारे धर्मों की शिक्षा है, लेकिन इस्लाम को यह विशेषता प्राप्त है कि वह मां बाप के साथ अच्छे व्यवहार के लिए साल का कोई विशेष दिन तय नहीं किया कि जिस दिन बच्चे और बच्चियां अपनी माताओं को गुलाब का फूल पेश करें और बस, बल्कि इस्लाम ने हर समय माता पिता को अपनी आँखों में बैठाए रहने की ताकीद की है, इस्लाम ने माँ बाप को जो स्थान दिया है इस से निश्चित रूप में दूसरे धर्मों का दामन खाली है, इस्लाम में अल्लाह के अधिकार के बाद सब से पहला अधिकार माँ बाप ही का है, माता पिता के अधिकार के महत्व का अनुमान इस बात से लगा सकते हैं कि कुरआन करीम ने जगह जगह माँ बाप के अधिकार अल्लाह के अधिकार के साथ बयान किया है, अल्लाह तआला ने फरमाया:
وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعْبُدُوا إِلَّا إِيَّاهُ وَبِالْوَالِدَيْنِ إِحْسَانًا ۚ إِمَّا يَبْلُغَنَّ عِندَكَ الْكِبَرَ أَحَدُهُمَا أَوْ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَا أُفٍّ وَلَا تَنْهَرْهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوْلًا كَرِيمًا ﴿٢٣﴾وَاخْفِضْ لَهُمَا جَنَاحَ الذُّلِّ مِنَ الرَّحْمَةِ وَقُل رَّبِّ ارْحَمْهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرًا ﴿٢٤
तुम्हारे रब ने फ़ैसला कर दिया है कि उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो और माँ-बाप के साथ अच्छा व्यवहार करो। यदि उनमें से कोई एक या दोनों ही तुम्हारे सामने बुढ़ापे को पहुँच जाएँ तो उन्हें ‘उँह’ तक न कहो और न उन्हें झिझको, बल्कि उनसे शिष्टतापूर्वक बात करो (23) और उनके आगे दयालुता से नम्रता की भुजाएँ बिछाए रखो और कहो, “मेरे रब! जिस प्रकार उन्होंने बालकाल में मुझे पाला है, तू भी उनपर दया कर।” (24) (सूरः बनी इस्राइल 23-24)
इस आयत में बुढ़ापे का जो विशेष उल्लेख किया गया है, इसकी वजह यह है कि इस उम्र में मां बाप विभिन्न विकारों के शिकार हो जाते हैं, उनकी बुद्धि और समझ जवाब देने लगती है, फिर उन के स्वभाव में भी तिखापन आ जाती है, मामूली मामूली बात पर बक बक करने लगते हैं, एक तरफ तो वह सेवा के मोहताज होते हैं तो दूसरी तरफ उनकी शैली में सख्ती पैदा हो जाती है, ऐसे समय में एक व्यक्ति को उसका बचपना याद दिलाया गया कि कभी तुम भी सेवा के मोहताज थे, तेरे मां बाप ने तेरी गंदगी को साफ किया था, तेरे नाज़ नख़रे सहन किए थे, अपने खून पसीने की कमाई को तुझ पर लुटाया था, अब जब कि वह सेवा के मोहताज हैं, तो सज्जनता की मांग है कि उनके पूर्व अनुग्रह का बदला चुकायें, ज़रा कुरआन की शैली पर विचार करें “فلاتقل لهما أف” यानी किसी बात पर उन्हें झड़कना तो दूर की बात है उन्हें “हूँ” भी मत करो, बल्कि अति विनम्रता के साथ बात करो।
सहीह बुखारी और सहीह मुस्लिम की रिवायत है कि एक बार हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़िल्लाहु अन्हु ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा “कौन सामल अल कोसब अधिक पसंदीदा है?”आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: नमाज़ को अपने समय पर अदा करना, पूछाः उसके बाद कौन? तो आप ने फरमाया: माँ बाप के साथ अच्छा व्यवहार करना, उन्होंने पूछा, उसके बाद कौन सा अमल अल्लाह को सब से अधिक प्रिय है? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः अल्लाह के रास्ते में जिहाद करना।
मानो पांच समय की नमाज़ों के बाद दूसरा अनिवार्य काम माता पिता की सेवा करना है, यहां तक कि जब एक सहाबी आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास जिहाद की अनुमति लेने के लिए आते हैं तो मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम उसे उस से उत्तम काम की ओर आकर्षित करते हुए फरमाते हैं:
“أحي والدتك”
क्या तुम्हारी माता जीवित हैं? उसने कहाझ: हाँ, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा:
” ففيهما فجاهد “
उन्हीं दोनों की सेवा कर के जिहाद करो. (बुखारी,मुस्लिम)
यह भी उल्लेखनीय है कि माता पिता के साथ अच्छे व्यवहार के लिए उनका मुसलमान होना ज़रूरी नहीं, ग़ैर मुस्लिम माता पिता के साथ भी इस्लाम अच्छे व्यवहार का आदेश देता है, हज़रत अस्मा रज़ियल्लाहु अन्हा बयान करती हैं कि मेरी माँ मेरे पास आई तब तक वह इस्लाम में प्रवेश न की थीं, मैं ने अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से पूछा कि मेरी माँ मेरे पास आई हैं, वह मेरे माल में रूचि रखती हैं, क्या मेरे लिए अनुमति है कि मैं उनकी सहायता करूँ? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा: “अपनी माँ की सहायता करो. हां यदि मुशरिक माता पिता हमें शिर्क पर आमादा करना चाहें तो उन की बात नहीं मानी जाएगी लेकिन ऐसे में भी उनके साथ अच्छा व्यवहार करना हमारा कर्तव्य है।
हज़रत साद बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु ने जब इस्लाम स्वीकार किया तो उनकी मां आग बबोला हो गईं और कहा: देखो या तो तुम इस्लाम से फिर जाओ अन्यथा न मैं खाना खाउंगी न पानी पिउंगी यहाँ तक कि भूख से मर जाउंगी, फिर अरब तुझे ताना देंगे कि यह है अपनी माँ का क़ातिल, यह सुन कर साद बिन अबी वक़्क़ास रज़ियल्लाहु अन्हु ने अपनी माँ को इन शब्दों में जवाब दिया:
والله يا أماه لو كان لك مائة نفس خرجت أمامى نفسا نفسا ما تركت دين الله
“जानती हो! अल्लाह की कसम! अगर तुम्हारे पास सौ जाने हैं और एक एक करके सब निकल जाएं तब भी इस्लाम से फिर नहीं सकता “. उनकी मां ने खाना पीना छोड़ दिया, एक दिन बीता, दूसरा दिन भी गुज़र गया, जब तीसरा दिन आया तो उसे सख्त भूख का अनुभव हुआ और उन्होंने खाना खा लिया. इस घटना के संदर्भ में कुरआन की या आयत उतरीः
وَإِن جَاهَدَاكَ عَلَىٰ أَن تُشْرِكَ بِي مَا لَيْسَ لَكَ بِهِ عِلْمٌ فَلَا تُطِعْهُمَا ۖوَصَاحِبْهُمَا فِي الدُّنْيَا مَعْرُوفًا ۖ وَاتَّبِعْ سَبِيلَ مَنْ أَنَابَ إِلَيَّ ۚ ثُمَّ إِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمْ تَعْمَلُونَ . سورة لقمان 15
किन्तु यदि वे तुझपर दबाव डाले कि तू किसी को मेरे साथ साझी ठहराए, जिसका तुझे ज्ञान नहीं, तो उसकी बात न मानना और दुनिया में उसके साथ भले तरीके से रहना। किन्तु अनुसरण उस व्यक्ति के मार्ग का करना जो मेरी ओर रुजू हो। फिर तुम सबको मेरी ही ओर पलटना है; फिर मैं तुम्हें बता दूँगा जो कुछ तुम करते रहे होगे।”- (सूरः लुक़मान 15)
बाप की तुलना में माँ अधिक कमजोर होती है, और बच्चे के लिए बाप से अधिक परेशानियां सहन करती है, इसी लिए इस्लाम ने मां का अधिकार अधिक बताया है, और माँ के साथ अच्छा व्यवहार करने पर विशेष बल दिया है, बुखारी और मुस्लिम में हज़रत अबु हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि एक व्यक्ति मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की सेवा में आया और पूछा कि ऐ अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक योग्य कौन है, आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: तेरी माँ, उसने पूछाः फिर कौन? आपने फरमाया: “तेरी मां” उसने पूछाः फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: “तेरी मां” उसने पूछाः फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: तेरा बाप.
इस हदीस में इस बात की दलील पाई जाती है कि मां का अधिकार बाप के अधिकार से ज़्यादा है, और रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के बाद सहाबा किराम ने इसी अर्थ को लोगों के सामने पेश किया, यहां तक कि हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने माँ की आज्ञा के पालन को मूक्ति का सबसे अच्छा स्रोत बताया, इमाम बुखारी ने अल- अदबुल मुफरद में यह घटना बयान किया है कि एक व्यक्ति इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा के पास आया और उसने कहाः मैं ने एक महिला को शादी का पैगाम दिया था, लेकिन वह हम से शादी करने से इनकार कर गयी, और जब एक अन्य व्यक्ति ने शादी का संदेश दिया तो वह शादी करने के लिए राजी हो गई, उसके इस व्यवहार से मुझे ग़ैरत आई और मैं ने उसकी हत्या कर दिया, क्या मेरे लिए पश्चाताप और तौबा है? हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा ने कहाः क्या तेरी माँ जीवित है? उसने कहा: नहीं, तब आप ने कहा: अल्लाह से तौबा करो और जिस हद तक हो सके नेकी के काम करो। इस हदीस के रावी अता बिन यसार रहिमहुल्लाह कहते हैं कि मैं हज़रत इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अन्हुमा के पास गया और उन से कहा कि आख़िर आपने उन्हें यह क्यों पूछा कि क्या तुम्हारी माँ जीवित है? आपने कहा:
إِنِّي لاَ أَعْلَمُ عَمَلاً أَقْرَبَ إِلَى اللهِ عَزَّ وَجَلَّ مِنْ بِرِّ الْوَالِدَةِ
“मैं कोई ऐसा अमल नहीं जानता जो अल्लाह के पास माता के साथ अच्छा व्यवहार करने से अधिक प्रिय हो। (अल-अदबुल मुफरद)
यही नहीं बल्कि माता पिता के साथ अच्छा व्यवहार ऐसे स्थान पर काम आता है जहां सारे दरवाजे बंद हो चुके होते हैं, आपने बनू इस्राईल के गुफा वालों का किस्सा सुना होगा जिसे बुखारी और मुस्लिम ने रिवायत किया है, अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: पहली उम्मतों में तीन व्यक्ति थे जो एक साथ यात्रा पर निकले, यहां तक कि रात हो गई, इस लिए रात बिताने के लिए वह एक गुफा में प्रवेश हुए, कुछ पल के बाद पहाड़ से एक चट्टान नीचे गिरा जो गुफा के कगार को बनद कर दिया, यह देख कर उन्होंने अपने नेक अमलों के वास्ते से अल्लाह से दुआ की, उनमें से एक ने कहा: ऐ अल्लाह तू जानता है, मेरे माँ बाप उमरदराज़ थे, शाम को मैं सब पहले उन्हें को दूध पिलाता था, एक दिन मैं पेड़ की खोज में दूर निकल गया और जब लौट कर आया तो देखा कि मां-बाप सो चुके थे, मैं शाम का दूध दूहा और उनकी सेवा में ले कर उपस्थित हुए तो देखा कि वे सोय हुए हैं, मैं ने उन्हें जगाना पसनद नहीं किया और उन से पहले अपने परिवार को दूध दूध पिलाना भी गवारा नहीं किया। दूध का प्याला हाथ में लिए उनके सिर के पास खड़ा उनके जागने की प्रतिक्षा करता रहा, जब कि बच्चे भूख के मारे मेरे क़दमों में बिलबिलाते रहे, यहां तक कि सुबह हो गई, जब जगे तो मैं उन्हें अपने शाम के हिस्से का दूध पिलाया और उन्हों ने पिया, हे अल्लाह! अगर यह काम सिर्फ तेरी आज्ञाकारी के लिए किया था तो ‘तू हमें इस संकट से छुटकारा दे, तो चट्टान हल्का सा सिरक गई इस तरह तीनों ने अपनी नेकियों के वास्ते से चट्टान से निजात पाई।
देखा आपने कि कैसे अल्लाह माता पिता की सेवा के आधार पर ऐसी जगह उनकी सहायता कर रहा है जहां सांसारिक सहारे बिल्कुल समाप्त थे।
कुछ लोग शादी करते ही मां बाप को भूल जाते हैं, उनके अधिकारों से लापरवाही बरतने लगते हैं, पत्नियों को सिर पर चढ़ा कर मां को तकलीफ देते हैं, कभी कभी बहू अपनी सास को जली कटी सुनाती है, और यह बेग़ैरत चुपचाप सुनता रहता है, आज हमारे समाज में माता पिता की अवज्ञा के विभिन्न रूप पाए जाते हैं, जैसे माता पिता को रुलाना, अपनी कथनी और करनी से उन्हें दुख पहुंचाना, उन से सख्ती से पेश आना, उनके आदेशों के पालन करने में तंगी महसूस करना, उनके सामने पेशानी पर सल्वटें लाना, उनकी बातों की परवाह न करना, उनकी अनुमति के बिना आज़ाद जीवन बिताना, उन पर अपनी पत्नी को प्रधानता देना आदि।
हमें चाहिए कि हम माता पिता की सेवा गर्व से करें कि इससे हमारा लोक और प्रलोक दोनों सुधरने वाला है। अल्लाह हमें इसकी तौफीक़ दे। आमीन
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