जब पति पत्नी एक साथ इस्लाम स्वीकार करें:
यदि पति और पत्नी दोंनों एक साथ इस्लाम स्वीकार करें तो दोनों अपने पुराने निकाह पर बाक़ी रहेंगे। उनका निकाह दोहराने की ज़रूरत नहीं है। हाँ कुछ स्थितियाँ इस से पृथक हैं जैसेः
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यदि वह अपनी किसी महरम से शादी कर रखा था, जैसे भांजी अथवा भतीजी आदि से उसकी शादी हुई थी जैसा कि आंध्र-प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में यह प्रथा प्रचलित है तो उनके इस्लाम स्वीकार करते ही पति पत्नी के बीच जुदाई डालना आवश्यक है।
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यदि उसने शादी में दो बहिनों को एकत्र किया था या पत्नी और उसकी फूफी तथा पत्नी और उसकी ख़ाला से शादी की थी तो दोनों में से किसी एक को तलाक़ देना आवश्यक होगा।
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यदि वह और उसकी पत्नियाँ इस्लाम स्वीकार करें जबकि उसके पास चार से अधिक पत्नियाँ हों तो सब को अपनी निकाह में बाक़ी रखना उसके लिए जाइज़ नहीं बल्कि उसके लिए अनिवार्य है कि चार का चयन कर के बाक़ी को तलाक़ दे दे।
यदि पति ने इस्लाम स्वीकार किया परन्तु पत्नी ने इस्लाम स्वीकार नहीं कियाः
यदि पति ने इस्लाम स्वीकार किया और पत्नी ने इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो पत्नी की दो हालत होगी, या तो वह अह्ले किताब में से होगी जैसे यहूदी या ईसाई, या अह्लि किताब में से नहीं होगी जैसे हिन्दु, सिख, जैनी, बुद्धिस्ठ, नास्तिक या अन्य मूर्तिपूजक।
अह्लि किताब पत्नीः
यदि पत्नी अह्ले किताब (यहूदी या ईसाई) है तो पति पत्नी से सम्बन्ध रख सकता है। क्योंकि एक मुसलमान के लिए जब अह्लि किताब की पवित्र महिलाओं से शादी करना जाइज़ है तो अह्लि किताब पत्नी के साथ सम्बन्ध रखना जाइज़ क्यों न होगा। अल्लाह तआला ने फरमायाः
الْيَوْمَ أُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبَاتُ وَطَعَامُ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ حِلٌّ لَكُمْ وَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَهُمْ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الْمُؤْمِنَاتِ وَالْمُحْصَنَاتُ مِنَ الَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ من قبلكم إِذَا آتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ مُحْصِنِينَ غَيْرَ مُسَافِحِينَ وَلَا مُتَّخِذِي أَخْدَانٍ المائدة: 5
आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमान वाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताब वालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मेहर) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को। ( सूरः अल-माइदा 5 )
लेकिन उसके लिए उचित है कि अपनी पत्नी को इस्लाम की ओर बुलाता रहे।
गैर-अह्लि किताब पत्नीः
यदि पत्नी हिन्दु, जैन, सिख, बुद्ध धर्म आदि का पालन करने वाली है तो
यदि किसी महिला ने इस्लाम स्वीकार किया परन्तु उस का पति इस्लाम स्वीकार नहीं किया तो उसका हुक्म यह है कि दोनों एक साथ नहीं रह सकते, दोनों के बीच जुदाई डालना ज़रूरी है। क्यों कि किसी मुस्लिम महिला के लिए गैरमुस्लिम पति के साथ रहना जाइज़ नहीं। अल्लाह ने फरमायाः
وَلَا تَنكِحُوا الْمُشْرِكَاتِ حَتَّىٰ يُؤْمِنَّ ۚ وَلَأَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكَةٍ وَلَوْ أَعْجَبَتْكُمْ ۗ وَلَا تُنكِحُوا الْمُشْرِكِينَ حَتَّىٰ يُؤْمِنُوا ۚ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّن مُّشْرِكٍ وَلَوْ أَعْجَبَكُمْ ۗ أُولَـٰئِكَ يَدْعُونَ إِلَى النَّارِ ۖ وَاللَّـهُ يَدْعُو إِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِإِذْنِهِ ۖ وَيُبَيِّنُ آيَاتِهِ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُون سورة البقرة 221
और मुशरिक (बहुदेववादी) स्त्रियों से विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानदारी बांदी (दासी), मुशरिक स्त्री से कहीं उत्तम है; चाहे वह तुम्हें कितनी ही अच्छी क्यों न लगे। और न (ईमान वाली स्त्रियाँ) मुशरिक पुरुषों से विवाह करो, जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमान वाला गुलाम आज़ाद मुशरिक से कहीं उत्तम है, चाहे वह तुम्हें कितना ही अच्छा क्यों न लगे। ऐसे लोग आग (जहन्नम) की ओर बुलाते है और अल्लाह अपनी अनुज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है। और वह अपनी आयतें लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि वे नसीहत पकड़ें। ( सूरः अल-बक़रा 221)
दूसरे स्थान पर फरमायाः
ۖ لَا هُنَّ حِلٌّ لَّهُمْ وَلَا هُمْ يَحِلُّونَ لَهُنَّ ۖ سورة الممتحنة 10
न तो वे स्त्रियाँ उनके लिए वैद्ध हैं और न वे उन स्त्रियों के लिए वैद्ध हैं।
इसमें कोई अंतर नहीं कि पति उसका अह्लि किताब में से है या अह्लि किताब में से नहीं है। दोनों हालत में मुस्लिम महिला किसी गैरमुस्लिम की शादी में नहीं रह सकती।
अब प्रश्न यह है कि यदि किसी महिला का पति बाद में इस्लाम स्वीकार किया तो क्या मामला किया जाएगा ?
तो इस विषय में इस्लामी विद्वानों के मत विभिन्न हैं परन्तु उन में इब्ने तैमिया और उनके शिष्य इब्नुल क़य्यिम रहि. के मत को प्राथमिकता प्राप्त है जिसका सारांश यह है कि यदि पत्नी के इस्लाम स्वीकार करने के बाद इस्लाम स्वीकार करता है तो इसकी दो ही शक्ल होगी, या तो इद्दत की स्थिति में इस्लाम स्वीकार करे जो तीन महीना है। या इद्दत गुज़रने के बाद इस्लाम स्वीकार करे। यदि तीन महीना के बीच ही इद्दत की अवधि में इस्लाम स्वीकार कर ले रहा है तो दोबारा निकाह करने की आवश्यकता नहीं है पहले ही निकाह पर उसकी पत्नी बाक़ी रहेगी और उसे पहले निकाह पर ही लौटा लेने का पूरा अधिकार है।
हाँ! यदि पत्नी की इद्दत गुज़रने के बाद तब इस्लाम स्वीकार नहीं की तो इद्दत गुज़रते ही उसके पति से उसका सम्बन्ध समाप्त हो गया अब उसके लिए किसी अन्य पुरुष से विवाह कर लेना वैध है, और यदि अपने पति की प्रतीक्षा करती है कि शायद अल्लाह उसे हिदायत दे दे और वह इस्लाम स्वीकार कर ले तो यह उसका हक़ है।
अब प्रश्न यह है कि जब माता-पिता इस्लाम स्वीकार करते हैं तो बच्चों पर क्या हुक्म लागू होगा ?
तो इस्लामी विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि जब माता-पिता इस्लाम स्वीकार करते हैं तो छोटे बच्चे माता-पिता के साथ होंगे जैसा कि हदीस में आया है।
हाँ यदि माता-पिता में से एक ने इस्लाम कुबूल किया जब कि दुसरे ने इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो बच्चों के हक़दार माँ और बाप में से जो मुस्लिम हैं वही होंगे।
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