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हम सब पर हमारे निर्माता और मालिक की बड़ी दया और कृपा है, उसने हमें मामूली पानी की एक बूंद से बनाया, हम कुछ नहीं थे लेकिन उसने हमें सब कुछ किया, नौ महीने तक माँ के गर्भ में पालता रहा, बहुत तंग स्थान से निकाला, माँ के पेट से बाहर निकलते ही हमारे लिए माँ के स्तन में दूध के रूप में आहार उतार दिया, माता पिता के दिल में ऐसा प्रेम डाल दी कि हमारे पालन पोषण में अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी, बुद्धि और ज्ञान से सम्मानित किया और अच्छा से अच्छा रूप रेखा बनाया, यदि हम एक बार अपने शरीर पर ही एक नज़र डालकर देख लें तो मन में अल्लाह के उपकार का भरपूर अनुभव पैदा हो जाएगा।

फिर इन सारे उपकारों में सबसे महान उपकार यह किया कि हमें मुसलमान बनाया, अगर वह चाहता तो इस्लाम के इस महान उपकार से वंचित रख सकता था, जैसा कि बहुत से लोग इस उपकार से वंचित हैं, लेकिन उसकी दया और कृपा हुई कि हमें इस्लाम की यह महान समपत्ति प्रदान की। दुनिया की सारी खुशी को एक तरफ रख दें और इस्लाम की नेमत को दूसरी ओर रख दें तो इस्लाम की यह नेमत दुनिया की सारी नेमतों पर भारी होगी।

इस्लाम ने मानव का पूरा पूरा ख्याल रखा है, और उनके अधिकारों की अदाएगी पर बूरा बल दिया है:

►इस्लाम ने युवावस्था से पहले पहले तक माँ बाप पर अनिवार्य किया कि वह अपने बच्चों की देख रेख करें, उनका सही ढंग से पालन पोषण करें, माँ बाप को आदेश दिया गया कि जब बच्चा सात वर्ष का हो जाये तो उसे नमाज़ का आदेश दें और जब दस वर्ष का हो जाए तो नमाज़ न पढ़ने पर उसकी पिटाई करें। अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा: 

مروا أولادکم بالصلاۃ وھم أبناء سبع سنین واضربوھم علیہا وھم أبناء عشر و فرقوا بینھم فی المضاجع۔  سنن أبى داؤد: 495 

 “तुम्हारे बच्चे जब सात साल के हो जाएं तो उन्हें नमाज़ का हुक्म दो और जब दस साल के हो जाएं तो नमाज़ न पढ़ने पर उनकी पिटाई करो और उनका बिस्तर अलग कर दो”। (सुनन अबी दाऊद: 495)

►इस्लाम ने मनुष्य को अपने माल और समपत्ति में मिल्कियत और तसर्रुफ का पूरा पूरा अधिकार दिया चाहे पुरुष हो या महिला, और रिश्तेदारों की विरासत में पुरुष और महिला दोनों का उचित अधिकार रखा। क़ुरआन में कहा गयाः

لِّلرِّجَالِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ وَلِلنِّسَاءِ نَصِيبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالْأَقْرَبُونَ مِمَّا قَلَّ مِنْهُ أَوْ كَثُرَ ۚ نَصِيبًا مَّفْرُوضًا  (سورة النساء: 7

 “पुरुषों को उस माल में हिस्सा है जो माता पिता और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, और महिलाओं का भी उस माल में हिस्सा है जो माता पिता और रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, चाहे कम हो या अधिक और यह भाग (अल्लाह की ओर से) सेट किया हुआ है ” (सूरः निसा: 7)

►इस्लाम ने मनुष्य को उसकी जान, माल, बुद्धि और सम्मान की सुरक्षा की गारंटी दी, संपत्ति की रक्षा के लिए चोर के हाथ काटने का आदेश दिया, प्राण की रक्षा के लिए कसास (जान के बदले जान) का आदेश दिया, बुद्धि की रक्षा के लिए शराबी को 80 कूड़े मारने का आदेश दिया और सम्मान की रक्षा के लिए आरोप लगाने वालों पर हद्द लागू किया तथा चुगली और ग़ीबत से मना किया।

►इस्लाम ने मनुष्य को अपने धर्म की सुरक्षा की गारंटी दी, किसी पर अपना नियम ज़बरदस्ती नहीं थोपता, अल्लाह ने कहा: 

لا إکراہ فی الدین – سورۃ البقرۃ:  256

  “धर्म के मामले में कोई ज़ोर जबरदस्ती नहीं”। (सूरः अल-बक़राः 256) 
धर्म की रक्षा हेतु अल्लाह ने मुसलमानों को आदेश दिया कि वह ग़ैर मुस्लिमों के देवी देवताओं को अपशब्द न कहें, ऐसा न हो कि वे अज्ञानता के कारण अल्लाह को बुरा भला कहने लगें। अंततः इस्लाम सच्चा धर्म होने के बावजूद हर धर्म के मानने वालों को अपने अपने धर्म के अनुसार चलने की अनुमति देता है और हर इंसान को धार्मिक सुरक्षा प्रदान करता है।

►इस्लाम ने मानव अधिकार की उस समय भी सुरक्षा की जब इनसान निर्धन और गरीबी हो जाए, या कमाने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में मालदारों पर ज़कात अनिवार्य किया और उन्हें लाज़िम किया कि वे एक सीमित मात्रा में अपने मालों की ज़कात निकालें, ताकि सारे गरीबों की मदद हो सके। अल्लाह ने कहा: 

و فی أموالھم حق للسائل والمحروم۔ الذاریات: 19

 “और उनके माल में सवाल करने वालों और सवाल से बचने वालों के लिए हक़ हैं।” (सूरः अज़्जारियात: 19)

►इस्लाम ने मानव अधिकार की रक्षा की जब वह वृद्धावस्था को पहुंच जाए और सेवा का मोहताज हो कि उसका खर्च उसके वंश और रिश्तेदारों पर अनिवार्य किया और उसका सम्मान और आदर करने पर उभारा। आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने बुढ़ों के महत्व को बताते हुए कहा किः

إن مِن إجلال الله تعالى إكرامَ ذي الشيبة المسلم – ابوداوٴد: 4843  

अल्लाह की महानता और बड़ाई की मांग यह है कि बूढ़े मुसलमान का सम्मान किया जाए। (सुनन अबी दाऊद: 4843) 
आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने यह भी कहा:

ليس منا من لم يرحم صغيرنا، ويعرف شرف كبيرنا   – سنن الترمذى: 1920

   वह हम में से नहीं जो हमारे छोटों पर दया न करे और हमारे बड़ों का आदर न करे। (तिर्मिज़ीः 1920)

►इस्लाम ने बीमारी की स्थिति में मनुष्य के अधिकार की रक्षा की कि रोगी की अयादत पर उभारा, उसकी देख-रेख की ताकीद की, उस पर बेहद सवाब रखा और उसके परिवार के सदस्य को धैर्य की ताकीद। 
सुनन तिर्मिज़ी की रिवायत है अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहा: 

مَا مِنْ مُسْلِمٍ يَعُودُ مُسْلِمًا غُدْوَةً إلا صَلَّى عَلَيْهِ سَبْعُونَ أَلْفَ مَلَكٍ حَتَّى يُمْسِيَ , وَإِنْ عَادَهُ عَشِيَّةً إلا صَلَّى عَلَيْهِ سَبْعُونَ أَلْفَ مَلَكٍ حَتَّى يُصْبِحَ ، وَكَانَ لَهُ خَرِيفٌ فِي الْجَنَّةِ – سنن الترمذی: 969

“जो मुसलमान किसी मुसलमान की सुबह में अयादत करता है तो शाम तक उसके लिए सत्तर हज़ार फरिश्ते (स्वर्गदूत) दुआ करते रहते हैं, और जो शाम में अयादत करता है तो सुबह तक उसके लिए सत्तर हज़ार फरिश्ते दुआ करते रहते हैं और उसके लिए स्वर्ग में आतिथ्य तैयार की जाती है।” (सुनन तिर्मिज़ी:969)

►इस्लाम ने मौत के बाद भी रोगी के अधिकार की रक्षा की कि उसे स्नान कराने और उसके कफन दफन करने का आदेश दिया, यदि मृतक मुस्लिम है तो उसके जनाज़े की नमाज़ पढने के बाद उसे दफनाने की ताकीद की, अगर वह कर्ज़दार था तो रिश्तेदारों को उभारा कि उसके कर्ज का भुगतान कर दें या फिर बैतुल माल से उसका क़र्ज़ अदा कर दिया जाए।

प्रिय पाठको! ये हैं कुछ अधिकार जो इस्लाम ने मनुष्य को दिए हैं, चाहे मुसलमान हों या गैर मुस्लिम। इन अधिकारों की तुलना में अगर आज पश्चिम के तथाकथित मानवाधिकार के दावेदोरों को देखते है तो बड़ा आश्चर्य होता है कि इस्लाम ने मानवता को आज से साढ़े चौदह सौ वर्ष पूर्व जो अधिकार प्रदान किया था उनका दस्वा भाग भी दुनिया मानवता को न दे सकी, बल्कि मानवाधिकार के नाम पर आज वह खून की होली खेल रहे हैं, मानवता को नष्ट करने पर तुले हुए हैं, फिलिस्तीन और शाम में इन दिनों जिस तरह के अत्याचार हो रहे हैं यह एक जीवंत उदाहरण है। फिर भी दावा है ह्यूमन राइट्स का।

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