इस्लाम संतुलन (वसतियत, मध्यमार्ग) पर आधारित धर्म है, इसकी सारी शिक्षाएं संतुलित, मध्यमिक और मानव स्वभाव के बिल्कुल अनुकूल हैं। इस्लामी शिक्षाओं में आस्था को वही महत्व प्राप्त है जो वृक्ष में जड़ को और शरीर में सिर को हासिल है, इस्लामी आस्था में कैसा संतुलन और मध्यमार्ग पाया जाता है इसे हम इस लेख में बयान करने का प्रयत्न करेंगे ताकि इस्लाम की सुन्दर्ता स्पष्ट रूप में हमारे समक्ष आ सके।
वसतियत का अर्थः
संतुलन के लिए अरबी भाषा में वसतियत शब्द का प्रयोग होता है, इस लिए इस्लामी आस्था में संतुलन को समझने के लिए वसतियक की पारिभाषिक व्याख्या अति आवश्यक हैः
वसतियत के पारिभाषिक अर्थों में बिहतर, उत्तम, संतुलन, या दो बिहतर चीज़ के बीच का भाग, या दो बुराई के बीच का हिस्सा। आदि अर्थ आते हैं, कुछ लोगों ने इसका अर्थ दो चीज़ों में से उत्तम चीज़ भी बताया है। इन अर्थों पर विचार करने से ज्ञात यह होता है कि वसतियत का अर्थ सही होने के लिए उसमें दो विशेषताओं का पाया जाना अति आवश्यक हैः
पहली विशेषता यह कि उसमें बिहतरी का अर्थ पाया जाए। दूसरी विशेषता यह कि उस में दो चीज़ों के बीच का भाग पाया जाए। इन दोनों विशेषताओं का एक साथ पाया जाना आवश्यक है। मात्र उत्तम होना काफी नहीं, जब तक कि दो चीज़ों के बीच में न आए। इस प्रकार वसतियत अथवा मध्यमार्ग को समझने का आधार यह हुआ कि यह कोताही और अतिश्योक्ति दोनों के बीच का भाग है जीसे हम सिराते मुस्तक़ीम या सीधा रास्ता कह सकते हैं। इसी लिए हम सूरः फातिहा में देखते हैं कि जब अल्लाह ने कहाः
(اهْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَقِيمَ) (الفاتحة:6)
हमें सीधा रास्ता दिखा, तो उसकी परिभाषा भी कर दी कि ऐसे लोगों का रास्ता जिन पर तेरा उपकार हुआ, फिर उस रास्ते को निश्चित करते हुए कहा कि
(غَيْرِ الْمَغْضُوبِ عَلَيْهِمْ وَلا الضَّالِّينَ)
अर्थात् ऐसे लोगों का रास्ता नहीं जिन पर तेरा प्रकोप हुआ और न उन लोगों का रास्ता जो पथभ्रष्ट हो गए।
अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने इस बिन्दु को अन्य हदीसों में भी स्पष्ट कर दिया है अतः जाबिर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु का बयान है किः हम लोग एक दिन अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास उपस्थित थे, आपने एक लकीर खींची, फिर उसके दायें ओर दो लकीरें खींची और बायें ओर भी दो लकीरें खींची, फिर आपने बीच वाली लकीर पर अपना पवित्र हाथ रखा और कहाः यह अल्लाह का रास्ता है। फिर आपने अल्लाह का यह कथन पढ़ाः
(وأن هذا صراطي مستقيمًا فاتَّبعوه ولا تتَّبعوا السُّبُلَ فتفرَّق بكم عن سبيله) [سورة الأنعام، الآية: 163].
और यह कि यही मेरा सीधा मार्ग है। तो तुम इसी पर चलो और दूसरे मार्गों पर न चलो कि वे तुम्हें उसके मार्ग से हटाकर इधर-उधर कर देंगे। (इब्ने माजा 1/6 हदीस 11)
अल्लाह पर ईमान के मामले में संतुलनः
इस विषय पर हम दो बिन्दुओं में बात करेंगेः
प्रथम बिन्दुः धर्मों की दृष्टि में अल्लाह पर ईमानः
कितने भौतिकवादियों ने अल्लाह के वजूद का ही इनकार कर दिया और यह समझा कि संसार का कोई सृष्टा नहीं लेकिन संसार का वजूद पाया जाता था और हर सृष्टि के लिए सृष्टा की आवश्यकता होती है तो इसका उत्तर कुछ लोगों ने यह निकाला कि संसार आकस्मिक रूप में पैदा हुआ है, हालांकि विश्व की पैदाइश में संतुलन का पाया जाना जिसमें चंद्रमा और सूर्य और बड़े बड़े नक्षत्र का घड़ी के पुर्जों के समान चलना इस बात का प्रमाण है कि इस संसार का एक तत्वदर्शी और सर्वशक्तिमान सृष्टा है। जब कि किसी अन्य ने जवाब दिया कि इसका सृष्टा प्रकृति है, लेकिन सवाल यह था कि जब प्रकृति ही सृष्टा है तो वह सृष्टा भी होगी और सृष्टि भी होगी, जैसे धरती धरती को पैदा करने वाली ठहरेगी और आकाश आकाश को पैदा करने वाला ठहरेगा, हालांकि ऐसा असंभव है।
इसकी तुलना में धर्मों के मानने वालों ने अल्लाह को तो माना परन्तु उन्हें अल्लाह की सही पहचान न हो सकी जिसके कारण अल्लाह को मानने का दावा करने के बावजूद अल्लाह को प्राप्त न कर सके। इसी लिए हम देखते हैं कि जब यहूदी मूसा अलैहिस्लाम के युग में ही फिरऔन से मूक्ति पाकर निकले तो रास्ते से जुग़रते हुए उन्हों ने मूसा अलैहिस्सालम से अपने लिए मूर्ति बनाने का अनुरोध किया (सूरः अल-आराफः138) और जब मूसा अलैहिस्साम बनू इस्राइल को छोड़ कर अपने रब से मिलने गए तो बनू इस्राइल ने बछड़े की पूजा आरम्भ कर दी ( सूरः अल-बक़राः 51) यही नहीं बल्कि उन्हों ने कभी अल्लाह को फक़ीर कहाः “निःसंदेह अल्लाह फक़ीर है और हम मालदार हैं” (सूरः आले इमरानः 181) तो कभी कहा किः अल्लाह का हाथ बंधा हुआ है।( सूरः अल-माइदाः 64) उसी प्रकार उन्हों ने अल्लाह पर आरोप डाला कि जब अल्लाह ने आकाश और धरती की सृष्टि की तो उसे थकावट हुई इसी लिए सातवें दिन उसने आराम किया, जबकि क़ुरआन ने कहाः “हमने आकाशों और धरती को और जो कुछ उनके बीच है छः दिनों में पैदा कर दिया और हमें कोई थकान न छू सकी।” (सूरः क़ाफः 38)
उसी प्रकार अल्लाह ने कहा कि यहूदियों ने अल्लाह के लिए बेटा भी माना जैसे उन्हों ने हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को अल्लाह का बेटा मान लिया (सूरः अत्तौबाः 30)
ईसाइयों ने भी ईसा अलैहिस्लाम को अल्लाह का बेटा कह कर अल्लाह का अपमान किया, बल्कि उन्हों ने तो अल्लाह के सम्बन्ध में यह कहा कि वह आकाश से अवतरित हुआ, पवित्र आत्मा का शरीर अपनाया और इनसान बन कर सूली पर लटका दिया गया। इस से बढ़ कर अल्लाह का अपमान और क्या होगा, इसी लिए क़ुरआन ने कहा कि “निकट है कि आकाश इससे फट पड़े और धरती टुकड़े-टुकड़े हो जाए और पहाड़ धमाके के साथ गिर पड़े, इस बात पर कि उन्होंने रहमान के लिए बेटा होने का दावा किया!” (सूरः मरयमः 90-91)
जब कि अल्लाह के सम्बन्ध में इस्लाम का मध्यमार्ग इस रूप में विदित होता है कि वह यकता है, सब उसके मुहताज हैं वह किसी का मुहताज नहीं, न उसने जन्म लिया है न किसी को जन्म दिया है। “उसने अपने लिए न तो कोई पत्नी बनाई और न सन्तान”। (सूरः अल-जिन्नः3) उसी प्रकार अल्लाह ने सूरः अल-इख़लास और सूरः बक़रा की आयत न. 255 में जिसे हम आयतुल कुर्सी के नाम से जानते हैं अल्लाह ने अपनी स्पष्ट 10 विशेषताएं बताई हैं जिनके प्रकाश में हमें अल्लाह का पूर्ण रूप में परिचय प्राप्त हो जाता है।
द्वीतीय बिन्दुः फिर्क़ों के बीच अहलेसुन्नत का संतुलनः
जिस प्रकार इस्लाम अन्य धर्मों की तुलना में संतुलन को अपनाता है, उसी प्रकार इस्लामी फिर्क़ों के बीच अह्लिसुन्नत वल जमाअत संतुलन पर आधारित समुदाय है। और यह संतुलन निम्न रूप में विदित होता हैः
अस्मा व सिफात के मैदान में संतुलनः
अस्मा व सिफात के मैदान में एक ओर जह्मिया हैं जो अल्लाह के नामों और गुणों का साफ इनकार करते हैं तो दूसरी ओर मुमस्सिला हैं जो अल्लाह की विशेषताओं को दासों की विशेषताओं के जैसे मानते हैं। जबकि अह्लिसुन्नत वल जमाअत ने न तो अल्लाह के अस्मा व सिफात का इनकार किया और न ही उन्हें दासों की विशेषताओं के समान ठहराया बल्कि उनकी आस्था यह है कि अल्लाह के अस्मा व सिफात को वेसे ही साबित किया जाए जैसे अल्लाह ने अपने लिए बयान किया है या उसके रसूल ने उसके लिए बयान किया है, बिना इनकार किए और बिना तशबीह दिए। क्यों कि अल्लाह ने स्वयं कहाः
لَيْسَ كَمِثْلِهِ شَيْءٌ ۖ وَهُوَ السَّمِيعُ الْبَصِيرُ – سورة الشورى 11
उसके सदृश कोई चीज़ नहीं। वही सबकुछ सुनता, देखता है। ( सूरः अश्शुरा 11)
तक़दीर (भाग्य) के मैदान में संतुलनः
तक़दीर अथवा भाग्य के मैदान में एक ओर जब्रिया हैं जो गुमान करते हैं कि दास को कोई इरादा और एख्तियार प्राप्त नहीं, वह अपने काम पर विवश है, जो कुछ भी होता है उसे अल्लाह ही करता है। तो दूसरी ओर क़दरिया हैं जो अल्लाह के इरादा और इख्तियार पर विश्वास ही नहीं रखते, वे कहते हैं कि दासों के काम अल्लाह के भाग्य में शामिल नहीं, दास स्वयं अपना काम पैदा करने वाले होते हैं।
जबकि अह्लिसुन्नत वल जमाअत की आस्था यह है कि दास अपने काम पर मजबूर नहीं है बल्कि उसे इरादा और इख्तियार प्राप्त है, और इसी इरादा और इख्तियार के आधार पर उससे पूछ गछ होने वाली है परन्तु दासों का इरादा अल्लाह के इरादा के अधीन है।
अल्लाह ने कहाः
لِمَن شَاءَ مِنكُمْ أَن يَسْتَقِيمَ وَمَا تَشَاءُونَ إِلَّا أَن يَشَاءَ اللَّـهُ رَبُّ الْعَالَمِينَ سورة التكوير 28-29
(क़ुरआन उपदेश है) उसके लिए जो तुम मे से सीधे मार्ग पर चलना चाहे, और तुम नहीं चाह सकते सिवाय इसके कि सारे जहान का रब अल्लाह चाहे।
इस आयत के पहले भाग में जब्रिया का खंडन है जो दास के इरादा का इनकार करते हैं और दूसरे भाग में क़द्रिया का खंडन है जो अल्लाह के इरादा का इनकार करते हैं।
बदला और सज़ा के मामले में संतुलनः
बदला और सज़ा के मामले में एक ओर मुर्जिया हैं जो अमल को ईमान से निकाल देते हैं और कहते हैं कि ईमान के होते हुए अमल कोई हानि नहीं पहुंचा सकता, तो दूसरी ओर ख़वारिज हैं जो किसी बड़े पाप के कारण इनसान को ईमान की सीमा से निकाल ही देते हैं। जब कि अह्लिसुन्नत वल जमाअत ने दोनों के बीच का रास्ता अपनाते हुए कहा कि अमल ईमान से अलग भी नहीं है और न ही बड़े पापों के करने वाले ईमान की सीमा से निकल जाते हैं बल्कि वह मोमिन ही रहते हैं परन्तु ईमान में कमी आ जाती है।
सहाबा के मामले में संतुलनः
सहाबा के मामले में एक ओर नवासिब हैं जिन्हें ने हज़रत अली और सहाबा के एक बहुत बड़े समूह को काफिर ठहराया और उनकी जान को हलाल क़रार दिया, तो दूसरी ओर रवाफिज़ हैं जिन्हों ने अह्लेबैत के सम्बन्ध में अतिश्योक्ति की यहांतक कि हज़रत अली को अबू बक्र और उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा पर प्राथमिकता देने लगे। जब कि अह्लेसुन्नत वल जमाअत ने मध्य का रास्ता अपनाया कि न तो सहाबा को काफिर ठहराया और उन से बराअत का इज़हार किया और न ही हज़रत अली या किसी सहाबी के सम्बन्ध में यह आस्था रखा कि वे पाप से बिल्कुल धुले हुए हैं। इसी लिए इमाम तहावी ने कहा कि सहाबा से प्रेम रखना दीन है, ईमान है और इह्सान है और उन से नफरत करना कुफ्र है, निफ़ाक़ है और ज़्यादती है।
करामात के मामले में संतुलनः
करामत उस चमत्कार को कहते हैं जो असाधारण रुप में अल्लाह के आदेश से किसी नेक दास के हाथ पर प्रकट हो, जबकि यही चमत्कार किसी नबी के हाथ पर प्रकट हो तो उसे मोजिज़ा कहते हैं, परन्तु यदि ऐसा चमत्कार ऐसे व्यक्ति के हाथ पर प्रकट हो जो ईमान और अमल से दूर है तो उसे इस्तिदराज (मुहलत देना) कहा जाता है।
करामात के मामले में एक ओर मुतज़िला हैं जिन्हों ने अवलिया के करामात का साफ इनकार कर दिया और कहने लगे कि यदि इसे माना जाए तो नबी और वली में अंतर करना सम्भव नहीं रहेगा, तो दूसरी ओर सुफिया हैं जिन्हों ने करामत के सम्बन्ध में अतिश्योक्ति किया यहाँ तक कि करामत का नाम लेकर वलियों के लिए वह सारी विशेषताएं सिद्ध कीं जो मात्र अल्लाह का हक़ हैं।
जबकि अह्लिसुन्नत वल जमाअत अवलिया के करामात को क़ुरआन और हदीस के दर्पण में साबित करते हैं लेकिन उसमें अतिश्योक्ति से बचते हैं।
किसी को काफिर ठहराने में संतुलनः
कुछ लोग छोटी छोटी बातों पर किसी पर कुफ्र का फतवा लागू कर देते हैं जब कि कुछ लोग इस्लाम की ओर निस्बत करने वाले प्रत्येक लोगों को मुसलमान सिद्ध करते हैं चाहे वे रात दिन इस्लाम का विरोद्ध ही क्यों न करते हों।
जब कि इस सम्बन्ध में अह्लेसुन्नत वल जमाअत का कहना यह है कि किसी को काफिर ठहराना किसी व्यक्ति पर निर्भर नहीं बल्कि यह काम अल्लाह और उसके रसूल का है। इसी लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कहाः जिसने अपने भाई को काफिर ठहराया तो उनमें से किसी एक की ओर वह शब्द लौट कर आता है, यदि वह काफिर था तो ठीक वरना वह शब्द कहने वाले की ओर लौट कर आ जाता है। ( सही बुख़ारीः 6104, सही मुस्लिमः 60)
इस लिए किसी को काफिर ठहराने के लिए दो शर्तों का पाया जाना आवश्यक है। पहली शर्त यह कि क़ुरआन और हदीस में उसकी करनी अथवा कथनी पर कुफ्र का हुक्म लागू किया गया हो। और दूसरी शर्त यह कि उस पर कुफ्र का हुक्म लागू करने के लिए किसी प्रकार की कोई रुकावट न पाई जाती हो। उदाहरण स्वरूप जो कुछ उसने बोला या किया है उसे अच्छी तरह जानता हो कि यह इस्लाम से निकालने वाला काम है उसी प्रकार उस ने अपनी संतुष्टि से बोलो हो, किसी ने उसे मजबूर न किया हो।
अमीर अथवा शासक के मामले में संलुतनः
कुछ लोग मामूली बातों पर अमीर अथवा शासक का विरोद्ध शुरू कर देते हैं और कुछ लोग खुले कुफ्र पर मजबूर किए जाने पर भी शासक का समर्थन आवश्यक समझते हैं जैसा कि क़ादयानियों ने भारत में अंग्रेज़ों के युग में जिहाद के ख़िलाफ फतवा देकर सिद्ध किया था कि अंग्रेज़ों का समर्थन अनिवार्य है। जब कि अह्लि सुन्नत वल जमाअत का कहना है कि अमीर और शासक की बात मानी जाए, उनके अत्याचार को भी सहन किया जाए जब तक कि वे कुफ्र का आदेश न दें। यदि वे कुफ्र का आदेश देते हैं तो ऐसी स्थिति में उनकी बात नहीं मानी जाएगी। उसी प्रकार उनके अत्याचार से खुश न हुआ जाए और पाप के कामों में उनका अनुसरण न किया जाए बल्कि तत्वदर्शिता के साथ उसे समझाने की कोशिश की जाए।
संदेष्टाओं पर ईमान के मामले में संतुलनः
यहूदियों और ईसाइयों ने कुछ संदेष्टाओं पर ईमान रखा और कुछ का इनकार किया, किसी प्रमाण के आधार पर नहीं बल्कि मात्र पक्षपात और इच्छाओं के कारण, कुछ ने संदेष्टाओं को अपमानित किया, और उनसे किए गए वादों को तोड़ा, उन्हों ने कुछ संदेष्टाओं पर बड़े पाप का आरोप डाला, और उन्हें दोषों और कमियों से पीड़ीत कर दिया। आधुनिक औल्ड टेस्टामेंट इस प्रकार के आरोपों से भड़ा पड़ा है जिन्हें पढ़ कर शरीफ इनसान का सिर शर्म से झुक जाता है जैसे उन्हों ने हारून अलैहीस्सलाम पर आरोप लगाया कि उन्हों ने ही बछड़ा बनाया था और लोगों को उसकी पूजा की ओर आमंत्रित की थी। नूह अलैहिस्सलाम पर आरोप लगाया कि वह शराब पीते थे, दाऊद और लूत अलैहिमास्सलाम पर व्यभीचार का आरोप लगाया।
उसी प्रकार उन्हों ने कितने संदेष्टाओं की हत्या की, प्रसिद्ध संदेष्टा जिनकी यहूदियों ने हत्या की, हज़रत ज़करिया और उनके बेटे हज़रत यह्या अलैहिमास्सलाम हैं।
ईसाइयों की ओर देखते हैं तो हमें पता चलता है कि उन्हों ने ईसा अलैहिस्सलाम के इलावा अन्य संदेष्टाओं में से कुछ को माना और कुछ का इनकार किया जैसे उन्हों ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का इनकार किया, और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शान में ग़ुलू (अतिश्योक्ति) की कि उनको अल्लाह ने जो स्थान दिया था उस से ऊपर का स्थान दे बैठे, उन्हों ने आपको अल्लाह का बंदा और उसका रसूल नहीं माना बल्कि अल्लाह, या अल्लाह का बेटा या तीन में से एक ठहरा लिया। और उनकी ओर ऐसे कोमों की निस्बत की जिसकी निस्बत मात्र अल्लाह की ओर ही की जा सकती है। अल्लाह ने कहाः निश्चय ही उन्होंने (सत्य का) इनकार किया, जिन्होंने कहा, “अल्लाह मरयम का बेटा मसीह ही है।” (सूरः अल-माइदाः 72) निश्चय ही उन्होंने इनकार किया, जिन्होंने कहा, “अल्लाह तीन में का एक है।” (सूरः अल-माइदाः 73) और ईसाई कहते है, “मसीह अल्लाह का बेटा है।” (सूरः अत्तौबाः 30)
बाद के युग में ईसाइयों की स्थिति यहाँ तक पहुंच गई कि उनके काहिनों और दरवेशों ने स्वयं को धर्म का ठीकेदार बना लिया था, यहाँ तक कि जो चाहते हलाल करते और जो चाहते हराम करते, जन्नत के टिकट तक बेचने लगे थे।
इन दोनों आस्थाओं के बीच इस्लाम ने मध्यमार्ग यह प्रस्तुत किया वह यह था कि सब से पहले संदेष्टाओं के सम्बन्ध में यहूदियों और ईसाइयों की आस्थाओं का खंडन किया, संदेष्टाओं का महत्व बयान किया, उनकी महानता और पवित्रता को क़ुरआन की विभिन्न सूरतों में विभिन्न शैली में दर्शाया। फिर संदेष्टाओं के सम्बन्ध में जो सही आस्था होनी चाहिए थी उसे खोल खोल कर स्पष्ट कर दिया। कि सारे संदेष्टा इनसान थे, लेकिन अति पवित्र और श्रेष्ट थे, उनके बीच फर्क़ किए बिना हम उन सब पर ईमान लाते हैं। अल्लाह ने कहाः
لا نُفَرِّقُ بَيْنَ أَحَدٍ مِنْهُمْ وَنَحْنُ لَهُ مُسْلِمُونَ – البقرة:136
हम उनमें से किसी के बीच अन्तर नहीं करते और हम केवल उसी के आज्ञाकारी हैं।” (सूरः अल-बक़राः 136)
उसी प्रकार ईसा अलैहिस्सलाम की वास्तविकता को खोल खोल कर बयान कर दिया। अतः अल्लाह ने कहाः
(إِنَّ مَثَلَ عِيسَى عِنْدَ اللَّهِ كَمَثَلِ آدَمَ خَلَقَهُ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهُ كُنْ فَيَكُونُ (آل عمران:59
निस्संदेह अल्लाह की दृष्टि में ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि उसे मिट्टी से बनाया, फिर उससे कहा, “हो जा”, तो वह हो जाता है। (सूरः आले इम्रानः59)
और मुहम्मद सल्ल. के सम्बन्ध में कहाः
(قُلْ لا أَقُولُ لَكُمْ عِنْدِي خَزَائِنُ اللَّهِ وَلا أَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلا أَقُولُ لَكُمْ إِنِّي مَلَكٌ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَى إِلَيَّ (الأنعام: من الآية50
कह दो, “मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने है, और न मैं परोक्ष का ज्ञान रखता हूँ, और न मैं तुमसे कहता हूँ कि मैं कोई फ़रिश्ता हूँ। मैं तो बस उसी का अनुपालन करता हूँ जो मेरी ओर वह्यं की जाती है।” (सूरः अल- अनआम 50)
और स्वयं अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने सम्बन्ध में कहाः
لا تطروني كما أطرت النصارى ابن مريم فإنما أنا عبده، فقولوا: عبد الله ورسوله – رواه البخاري 4/142
मेरी शान में अतिश्योक्ति मत करो जैसे कि ईसाइयों ने ईसा बिन मरयम की शान में अतिश्योक्ति किया, मैं तो अल्लाह का दास हूं, इस लिए मुझे अल्लाह का दास और उसका संदेष्टा कहो। ( सही बुख़ारीः 4/142)
अन्तिम बातः
इन व्याख्याओं से स्पष्ट रूप में यह बात समझ में आती है कि इस्लामी आस्था मानव स्वभाव के बिल्कुल अनुकूल है, इस आस्था के आधार पर जब एक व्यक्ति तैयार होता है तो वह जीवन के हर मोड़ पर संतुलन का प्रदर्शन करता है, उसमें न कोताही होती है और न कट्टरता। ऐसा व्यक्ति समाज और समुदाय के लिए शान्ति और प्रेम का प्रतिक होता है।
लेखः शैख सफात आलम मुहम्मद ज़ुबैर तैमी मदनी
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